तरही ग़ज़ल

दर्द ही से फ़क़त बनी हो क्या?
ज़िंदगी! इतनी ही बुरी हो क्या?

तुमसे इतना लगाव है मुझको!
तुम मिरी रूह में बसी हो क्या?

हाले-दिल तो छुपा चुका था मैं,
मेरी आँखों को पढ़ रही हो क्या?

चुप-सी हो, आई हो यहाँ जबसे,
मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या? 

गाँव कबके उजड़ गया, साहब!
शहर से लौटे ही अभी हो क्या?

हो गई है, तो मान ले ग़लती!
तेरी हर बात अब सही हो क्या?

अश्क काग़ज़ भिगो रहे हैं क्यूँ?
'ज़ैफ़' की नज़्म पढ़ रही हो क्या?

© यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

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