नज़्म - ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं
मिट्टी समझते हैं र'ईस, ग़रीबों की इज़्ज़त को
जो मजबूर का सीना रौंदने की ताब रखते हैं |
दौलत से अगर ये ख़रीदते हैं जवां जिस्म,
तो बेचे गये बच्चों का भी ये हिसाब रखते हैं |
मौत से सस्ते यहाँ ज़िन्दगी के दाम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
स्कूल से जो लख़्ते-जिगर आती नहीं शाम तक
और खौफ़ में उसके बाबा की आत्मा घबराती है |
माँ तकती है रो-रो कर, बिटिया का यहाँ रास्ता
और वहां उस मासूम की आबरू लुट जाती है |
हाय! आसुओं में नहाए घर तमाम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
हर लब से गाली छूटे है, हर हाथ यहाँ तलवार लिए
हर बात पे दंगा भड़के है, हिन्दू-मुसलमान के बीच |
समझता नहीं यहाँ कोई, ऐतबार किसे कहते हैं?
फ़ासला बढ़ता जाऐ है, इंसान-इंसान के बीच |
अपने भी, अपनों में यहाँ बदनाम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
औरत यहाँ पे इस क़दर बंदिशों में जलती है
किसी पिंजरे में जैसे कोई परिंदा जल जाये |
लाख अरमान संजोये, करते हैं माँ-बाप विदा
पर पहुँचे बेटी ससुराल तो ज़िंदा जल जाये |
दहेज़-हत्या के चर्चे यहाँ पे आम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
हरदम बेक़रारी है, किसी निगाह को आराम नहीं
ख़्वाब देखते ही यहाँ पे, ता'बीर पलट जाती है |
हर मुँह में लगी हुई है यहाँ पे मुहर झूठ की
सच बोल दे कोई, तो ज़बान कट जाती है ||
बेशर्मी के तमाशे, यहाँ हर गाम होते हैं |
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
© यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'
जो मजबूर का सीना रौंदने की ताब रखते हैं |
दौलत से अगर ये ख़रीदते हैं जवां जिस्म,
तो बेचे गये बच्चों का भी ये हिसाब रखते हैं |
मौत से सस्ते यहाँ ज़िन्दगी के दाम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
स्कूल से जो लख़्ते-जिगर आती नहीं शाम तक
और खौफ़ में उसके बाबा की आत्मा घबराती है |
माँ तकती है रो-रो कर, बिटिया का यहाँ रास्ता
और वहां उस मासूम की आबरू लुट जाती है |
हाय! आसुओं में नहाए घर तमाम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
हर लब से गाली छूटे है, हर हाथ यहाँ तलवार लिए
हर बात पे दंगा भड़के है, हिन्दू-मुसलमान के बीच |
समझता नहीं यहाँ कोई, ऐतबार किसे कहते हैं?
फ़ासला बढ़ता जाऐ है, इंसान-इंसान के बीच |
अपने भी, अपनों में यहाँ बदनाम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
औरत यहाँ पे इस क़दर बंदिशों में जलती है
किसी पिंजरे में जैसे कोई परिंदा जल जाये |
लाख अरमान संजोये, करते हैं माँ-बाप विदा
पर पहुँचे बेटी ससुराल तो ज़िंदा जल जाये |
दहेज़-हत्या के चर्चे यहाँ पे आम होते हैं ||
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
हरदम बेक़रारी है, किसी निगाह को आराम नहीं
ख़्वाब देखते ही यहाँ पे, ता'बीर पलट जाती है |
हर मुँह में लगी हुई है यहाँ पे मुहर झूठ की
सच बोल दे कोई, तो ज़बान कट जाती है ||
बेशर्मी के तमाशे, यहाँ हर गाम होते हैं |
है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं ||
© यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'
Comments