नज़्म - जहाँ भी तू है लौटके आ जा

(माँ-पिता अनमोल होते हैं। हम फिर भी उनसे लड़ते रहते हैं। जब तक वे साथ होते हैं, हम क़द्र नहीं रखते। लेकिन कमी उनके जाने के बाद महसूस होती है। ये कविता किसी का दिल दुखाने हेतु नहीं लिखी गयी है, बस एक जागरूकता बढ़ाने की कोशिश है कि हमें सम्भलना होगा इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।)


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( नज़्म - जहाँ भी तू है लौटके आ जा )
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कितना प्यार है तुझसे माँ! बस मैं कह नहीं पाता था।
बहुत बुरा हूँ, बात-बात में तेरा दिल दुखाता था।।
भीगे-भीगे नैन लिए, दिन-रात अब आहें भरता हूँ।
जहाँ भी तू है लौटके आ जा, मैं फ़रियाद करता हूँ।।

आज तो इतना तन्हा हूँ मैं, हर तरफ़ है तन्हाई।
इस क़दर तू दूर गई, फिर कभी लौटकर न आई।।
इन दिनों ये हाल है मेरा, अपने आपसे डरता हूँ।
जहाँ भी तू है लौटके आ जा, मैं फ़रियाद करता हूँ।।

गले लगाके करती थी, प्यार ज़ाहिर, आए दिन।
मुझे याद है तू रोती थी, मेरी ख़ातिर, आए दिन।।
आज तो मैं रात-दिन बस उसी प्यार को मरता हूँ।
जहाँ भी तू है लौटके आ जा, मैं फ़रियाद करता हूँ।।

दुआ है मेरी मौला से, मुक़म्मल जहाँ सबको दे।
हाँ ऐ काश! वो तेरी जैसी, प्यारी माँ सबको दे।
मैं तो ऐसा टूट गया हूँ, जुड़ने से भी डरता हूँ।
जहाँ भी तू है लौटके आ जा, मैं फ़रियाद करता हूँ।।


© यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

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