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Showing posts from January, 2019

ग़ज़ल - कुछ तो माँ की दुआ का असर था

टल गया जोकि मुश्किल सफ़र था कुछ तो माँ की दुआ का असर था मैं किसी से डरा हूँ भला कब? जो कभी ना झुका, मेरा सर था कोयलें रो पड़ी इक शजर को, ये जली शै कभी एक घर था आग सुलगा गया हर तरफ़ वो, देखने में तो केवल शरर था 'आदमी अच्छा है', कहते हैं सब, नेकियों का ही सारा समर था लाखों थे हुस्न वाले जहाँ में, प्यार तुम्हीं से था मुझको, गर था तुम सितम कर गये, ये अदा थी, हम सहन कर गये, ये हुनर था आज बचपन बहुत याद आया, इस जवानी से तो बेहतर था कबका मर जाते, गर ज़ोर चलता, क्या करें 'ज़ैफ़', अपनों का डर था © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - शीशे का दिल है

शीशे का दिल है, सो पत्थर नहीं देखे जाते आज कल आपके तेवर नहीं देखे जाते कुछ 'लगन' नाम की भी चीज़ तो होती होगी? ऊँचे सपने कभी सोकर नहीं देखे जाते कोई अबला लुटी तो सबने फिरा लीं नज़रें, अब ज़माने में दिलावर नहीं देखे जाते (दिलावर = brave) रोक दो जंग, लहू बह रहा है हर जानिब अब अज़ीज़ों के कटे सर नहीं देखे जाते एक सीरत ही बहुत, हुस्न के चमकाने को, लड़की अच्छी हो तो ज़ेवर नहीं देखे जाते (सीरत = स्वभाव, character) जो जाँ भी 'ज़ैफ़' हथेली पे लिए फिरते हैं, उनकी आँखों में कभी डर नहीं देखे जाते © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - सुनो, ज़ेबा!

सुनो, ज़ेबा! दिल दुख रहा है आज बहुत.. नहीं नहीं कोई खास बात नहीं, तुम्हें परेशान करने का इरादा भी नहीं.. भूली-बिसरी यादें दुहराऊं, क्या फ़ायदा? यादें तो कसक बनकर कलेजे में ही फँस गईं हैं जैसे.. तुमसे वो पहली मुलाक़ात थी और आज का ये दिन है, तुम्हारे लिए मेरी चाहत ज़रा भी कम नहीं हुई.. हाँ, जानता हूँ तुम किसी और की हो और ये फ़ालतू की बक़वास अब कोई मायने नहीं रखती पर क्या करूँ, ज़ेबा! दिल दुख रहा है आज बहुत.. लंबा अरसा हो गया है बात किये रस्ते कट चुके हैं दोंनो के और ऐसा भी नहीं कि फिर किसी मोड़ पर आ मिलें इत्तेफ़ाक़न.. तुम काफ़ी पीछे छूट गयी हो मैं भी बहुत दूर चला आया हूँ फिर भी.. नामुराद उम्मीद क़ायम है इसी बात का मुझे ग़म है- मुहब्बत कम भी नहीं होती उम्मीद ख़तम भी नहीं होती सुनो, ज़ेबा! दिल दुख रहा है आज बहुत.. © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - वो शख़्स मुझको मिल गया

दो दिलों ने एक होने का किया है फ़ैसला, अब हमारे दरमियाँ कोई भरम होगा नहीं। मैं तुझी पे वार दूँ जो कुछ भी मेरे पास है, इक दफ़ा बस बोल दे, ये प्यार कम होगा नहीं। जो उजाला चाहिए था ज़िंदगी के वास्ते, वो तिरी सूरत की मीठी धूप में मुझको मिला। मैं जिसे भी ढूँढता था हर चमन में, बाग़ में, वो महकता फूल तेरे रूप में मुझको मिला। आज सबके सामने, करता हूँ इज़हारे-वफ़ा, हाँ तिरी चाहत में मेरी जाँ गयी औ' दिल गया, ज़िंदगी से सच कहूँ तो अब गिला मुझको नहीं, चाहता था मैं जिसे वो शख़्स मुझको मिल गया। © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - काम छीना मुफ़्लिसी ने

काम छीना मुफ़्लिसी ने और फिर ये नाम छीना हम ग़रीबों के सरों से आज सारा बाम* छीना  (बाम = छत) कुछ बहस सी हो गयी थी आज मेरी साक़िया से मन में उसके क्या समाई? हाथ ही से जाम छीना मंथरा के ही कपट ने, मारी ममता कैकई की एक माँ की ज़िद ने आख़िर दूसरी से 'राम' छीना यूँ अलग होने से माना प्यार कम होता नहीं, पर क्या वजह थी ऐ ख़ुदा जो राधिका से श्याम छीना? © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

तरही ग़ज़ल

दर्द ही से फ़क़त बनी हो क्या? ज़िंदगी! इतनी ही बुरी हो क्या? तुमसे इतना लगाव है मुझको! तुम मिरी रूह में बसी हो क्या? हाले-दिल तो छुपा चुका था मैं, मेरी आँखों को पढ़ रही हो क्या? चुप-सी हो, आई हो यहाँ जबसे, मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या?  गाँव कबके उजड़ गया, साहब! शहर से लौटे ही अभी हो क्या? हो गई है, तो मान ले ग़लती! तेरी हर बात अब सही हो क्या? अश्क काग़ज़ भिगो रहे हैं क्यूँ? 'ज़ैफ़' की नज़्म पढ़ रही हो क्या? © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

तुम्हारे नाम पे

बिताना चाहता हूँ तुम्हारे साथ कुछ पल फ़ुर्सत भरे तुम्हारे नाम पे लिखना चाहता हूँ एक ताज़ा ग़ज़ल उभारना चाहता हूँ तुमको, तुम्हारी ही स्मृतियों से जिनमें तुम अक्सर खो जाया करती हो बात करते-करते| तुम्हारे एक स्पर्श से पिघल जाना चाहता है दिल तुम्हारी साँसों से महक जाना चाहती हैं फ़िज़ाएँ तुम्हारी समंदर आँखों में डूबकर देखना चाहता हूँ ज़िंदगी का सार, तुम्हारी मखमली बाँहों में सिमटना चाहता हूँ थोड़ी देर समेट लेना चाहता हूँ तुम्हारा सारा दुख, चुरा लेना चाहता हूँ तुम्हारी पलकों के आंसू जिन्हें बहाया करती हो तुम अपने सूनेपन में, अक्सर| मैं भर देना चाहता हूँ तमाम ख़ुशियाँ तुम्हारे दामन में और बता देना चाहता हूँ तुम्हें कि मेरे लिए, तुमसे ख़ूबसूरत और कोई ग़ज़ल नहीं © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - तुम पर जीवन भर मरना है

दिल से लिपटी ही रहती है ये धड़कन जिस तरह, मेरे तन की रग-रग में इस क़दर बसी हो तुम हर वक़्त मुझे, हर बात पर, वास्ता तुम्हीं से है, मुहब्बत में उट्ठे जज़्बात की ख़ुशी हो तुम        कभी मेरे तुम्हारे बीच में आ सकता कोई रिवाज नहीं        तुम पर जीवन भर मरना है, केवल आज ही आज नहीं तुम्हारे चंचल नैनों में, भोली-सी शरारत बसा करे, तुममें गज़ब नज़ाकत है वो भी सादगी के संग मैं तो यूँ ही काग़ज़ पर लफ़्ज़ों को पिरो-सा देता हूँ, पर तुम्हीं चूमके भरती हो, मेरी शायरी में रंग       तुम को भर लूँ बाहों में, अब दुनिया की कोई लाज नहीं       तुम पर जीवन भर मरना है, केवल आज ही आज नहीं जो दो रूहों को एक कर दे, मुहब्बत उसी का नाम है, तुम भी मुझपे मरती रहीं, मैं भी तुम पर लुटा किया दिलों में जो सुकूँ सा भर दे, इबादत उसी का नाम है तुमने भी मुझे वफ़ा सौंपी, मैंने भी तुमको ख़ुदा किया       तुम्हारे सिवा अब दुनिया में, किसी का मैं मोहताज नहीं       तुम पर जीवन भर मरना है, केवल आज ही आज नहीं © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - उस वक़्त तुम्हें याद आएगा

जिस वक़्त तुमसे, ऐ जानां! सब साथ छुड़ा जायें बीच राह में लाकर तुमसे हाथ छुड़ा जायें तुमको ये दुनिया जब खाली-सी लगने लग जाये, जब ये ज़ालिम तन्हाई गाली-सी लगने लग जाये मेरी ज़िंदगी क्यों बिखरी है, उस वक़्त तुम्हें याद आएगा मुझपे क्या क्या गुज़री है, उस वक़्त तुम्हें याद आएगा जब अश्क से भीगे बिस्तर को, नाख़ून कुरेदने लग जाएँ हाँ दर्द के तीखे भाले जब कलेजा छेदने लग जाएँ जब आधी रात, ख़ाब से उठकर, कंपकंपाने लग जाओ जब तकिये से रोने की आवाज़ दबाने लग जाओ मेरी हालत कैसी बिगड़ी है, उस वक़्त तुम्हें याद आएगा मुझपे क्या क्या गुज़री है, उस वक़्त तुम्हें याद आएगा © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं

मिट्टी समझते हैं र'ईस, ग़रीबों की इज़्ज़त को जो मजबूर का सीना रौंदने की ताब रखते हैं | दौलत से अगर ये ख़रीदते हैं जवां जिस्म, तो बेचे गये बच्चों का भी ये हिसाब रखते हैं |                  मौत से सस्ते यहाँ ज़िन्दगी के दाम होते हैं ||                  है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं || स्कूल से जो लख़्ते-जिगर आती नहीं शाम तक और खौफ़ में उसके बाबा की आत्मा घबराती है | माँ तकती है रो-रो कर, बिटिया का यहाँ रास्ता और वहां उस मासूम की आबरू लुट जाती है |                  हाय! आसुओं में नहाए घर तमाम होते हैं ||                  है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं || हर लब से गाली छूटे है, हर हाथ यहाँ तलवार लिए हर बात पे दंगा भड़के है, हिन्दू-मुसलमान के बीच | समझता नहीं यहाँ कोई, ऐतबार किसे कहते हैं? फ़ासला बढ़ता जाऐ है, इंसान-इंसान के बीच |                   अपने भी, अपनों में यहाँ बदनाम होते हैं ||                   है ये वो बाज़ार, ग़रीब जहाँ नीलाम होते हैं || औरत यहाँ पे इस क़दर बंदिशों में जलती है किसी पिंजरे में जैसे कोई परिंदा जल जाये | लाख अरमान संजोये, करते

ग़ज़ल - इक बुरी लत हो गयी है

इक बुरी लत हो गयी है तेरी आदत हो गयी है नींद किसको आएगी अब? जब मुहब्बत हो गयी है इश्क़ करवट ले रहा है, इक शरारत हो गयी है शायरी जो मैंने लिक्खी, प्यार का ख़त हो गयी है तुम भी चुप हो मैं भी चुप हूँ, एक मुद्दत हो गयी है यूँ ख़ुदी से लड़ रहा हूँ, ज्यूँ बग़ावत हो गयी है बिन बताये जा रहे हो! इतनी नफ़रत हो गयी है? मैंने तो उल्फ़त करी थी, पर इबादत हो गयी है पास मेरे, आ गईं तुम, थोड़ी राहत हो गयी है 'ज़ैफ़', मेरा हाल देखो! कैसी ये गत हो गयी है © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - दिल को आज भी ये गुमाँ है

ज़िंदगी ने आज फिर उसी राह पे ला खड़ा किया है जहाँ से कभी अलग हुए थे हम-तुम तुम्हें याद हो न याद हो, मुझे याद है- वो मेरे काँधे पे तुम्हारा सर रख देना, वो फ़र्दा के हसीं ख़्वाब की बातें, वो तुम्हारे माथे को मेरा बेबाकी से चूम लेना, वो हाथों में हाथ लिए चलते जाना दूर तक.. शायद दिल को आज भी ये गुमाँ है- उसी राह की उसी मोड़ पर, भूले-भटके ही सही तुमसे फिर मुलाक़ात हो जाये कुछ देर ही सही, बात हो जाये दिल को आज भी ये गुमाँ* है (*गुमाँ - doubt) © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - हूँ चिराग़े-शिकस्ता, बुझा दो मुझे

मैं बुरा हूँ, बुरा हूँ, सज़ा दो मुझे! थोड़ा तो जीने लायक़ बना दो मुझे! शे'र सुनने के क़ाइल हो तो बोल दो, वरना इस बज़्म ही से उठा दो मुझे!  (बज़्म = महफ़िल) बस मुहब्बत की है आपसे और क्या हो सज़ा जो भी मेरी सुना दो मुझे! 'याद' हूँ मैं अगर तो सजाकर रखो! 'भूल' हूँ मैं अगर तो भुला दो मुझे! मेरी तो लौ भी अब 'ज़ैफ़' धुंधला गई हूँ चिराग़े-शिकस्ता, बुझा दो मुझे! © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - जहाँ भी तू है लौटके आ जा

(माँ-पिता अनमोल होते हैं। हम फिर भी उनसे लड़ते रहते हैं। जब तक वे साथ होते हैं, हम क़द्र नहीं रखते। लेकिन कमी उनके जाने के बाद महसूस होती है। ये कविता किसी का दिल दुखाने हेतु नहीं लिखी गयी है, बस एक जागरूकता बढ़ाने की कोशिश है कि हमें सम्भलना होगा इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।) ***************************** ( नज़्म - जहाँ भी तू है लौटके आ जा ) ***************************** कितना प्यार है तुझसे माँ! बस मैं कह नहीं पाता था। बहुत बुरा हूँ, बात-बात में तेरा दिल दुखाता था।। भीगे-भीगे नैन लिए, दिन-रात अब आहें भरता हूँ। जहाँ भी तू है लौटके आ जा, मैं फ़रियाद करता हूँ।। आज तो इतना तन्हा हूँ मैं, हर तरफ़ है तन्हाई। इस क़दर तू दूर गई, फिर कभी लौटकर न आई।। इन दिनों ये हाल है मेरा, अपने आपसे डरता हूँ। जहाँ भी तू है लौटके आ जा, मैं फ़रियाद करता हूँ।। गले लगाके करती थी, प्यार ज़ाहिर, आए दिन। मुझे याद है तू रोती थी, मेरी ख़ातिर, आए दिन।। आज तो मैं रात-दिन बस उसी प्यार को मरता हूँ। जहाँ भी तू है लौटके आ जा, मैं फ़रियाद करता हूँ।। दुआ है मेरी मौला से, मुक़म्मल जहाँ सबको दे। हाँ ऐ काश! वो तेर

ग़ज़ल - प्यार की ख़ातिर

एक फ़रियाद कर रहा हूँ, प्यार की ख़ातिर तुझे ही याद कर रहा हूँ, प्यार की ख़ातिर है ज़िंदगी बड़ी काम की चीज़, मगर मैं, इसको बर्बाद कर रहा हूँ, प्यार की ख़ातिर ज़िंदगी-भर के गुनाहों का अफ़सोस, मौत के बाद कर रहा हूँ, प्यार की ख़ातिर जिसने मुझको सिर्फ़ दुख ही दुख दिए, उसी को शाद* कर रहा हूँ, प्यार की ख़ातिर (* प्रसन्न) कभी सादगी पसंद मुझे थी 'ज़ैफ़', पर अब फ़ितने-फ़साद कर रहा हूँ, प्यार को ख़ातिर © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - अब तो दुआओं से भी इलाज नहीं होता

अब तो दुआओं से भी इलाज नहीं होता कल की बात ही और थी, आज नहीं होता क़लम के बूते करता है इबादत को, शायर, क़ौम का मोहताज नहीं होता तरस खा अब्र, बच्चों की शक्ल देख! आजकल उन खेतों में अनाज नहीं होता (अब्र = बादल) करके जफ़ा, उमीद वफ़ा की करते हो? यार, ऐसा तो कोई रिवाज नहीं होता हमसे पूछो, असर क्या है इश्क़ का? काम नहीं होता कोई काज नहीं होता नेकी भी करो तो उठेंगी उँगलियाँ किसी का हमदर्द समाज नहीं होता तुम थे जबतक, ख़ुश रहता था दिल अब कभी दिल ख़ुशमिज़ाज नहीं होता बड़ी कोशिश की 'ज़ैफ़' चारा-ए-ग़म की कल की बात ही और थी, आज नहीं होता © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

वो बचपन के दिन याद आते हैं

जो तुमने प्यार लुटाया बाबा! उसका कोई मेल नहीं। ख़ुशियों की क़ुरबानी देना कोई मामूली खेल नहीं।     जब भी तुमको याद करूँ, ये नीर छलक-से जाते हैं।     तुम्हारे साथ गुज़ारे वो बचपन के दिन याद आते हैं। मैं जब भी रस्ता भूल गया हूँ, तुमने राह दिखलाई है। गर मुझमें कुछ अच्छाई है तो तुमने ही सिखलाई है।     जिस्मो-जाँ ये मेरे, बस तुमको 'आदर्श' बताते हैं।     तुम्हारे साथ गुज़ारे वो बचपन के दिन याद आते हैं। तुमने हमको जनम दिया, तुम्हीं ने जान बक्शी है, तुमने अपना अंश बनाकर नई पहचान बक्शी है,     ईश्वर-अल्लाह-वाहे-गुरु भी बाद तुम्हारे आते हैं।     तुम्हारे साथ गुज़ारे वो बचपन के दिन याद आते हैं। © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - मुझे आईना चाहिए था

हमें और क्या चाहिए था प्यार आपका चाहिए था बस इक नक्शे-पा की तलब थी मुझे रास्ता चाहिए था मरीज़े-मुहब्बत थे हम भी इलाजे-वफ़ा चाहिए था कहानी अटक सी गयी थी कोई सिलसिला चाहिए था बहुत था ग़ुरूर मुझे ख़ुद पे मुझे आइना चाहिए था मिला ही नहीं तो करें क्या वही बेवफ़ा चाहिए था © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

इक तरफ़ा प्यार

बेक़रार लम्हें हैं, कुछ क़रार ही दे जाते, दिल के बंजर बाग़ों को इक बहार ही दे जाते. सच्चे प्यार के बदले, झूठा प्यार ही दे जाते.. (बड़ा ख़ुदगर्ज़ है.. इक तरफ़ा प्यार जाँ-लेवा मर्ज़ है.. इक तरफ़ा प्यार )  x 2 तुमको खोकर यूँ चैन गँवाया, (आशिक़ी, दर-ब-दर हो चली )  x 2 जुनूँ की हद भी लाँघ दी मैंने, मुहब्बत, दर्द-ए-सर हो चली .. इन सूनी बाहों को, बाहों का हार ही दे जाते सच्चे प्यार के बदले झूठा प्यार ही दे जाते.. (बड़ा ख़ुदगर्ज़ है.. इक तरफ़ा प्यार जाँ-लेवा मर्ज़ है.. इक तरफ़ा प्यार )  x 2 भटकता ही रहा ताउम्र सफ़र में, न मिल सकी फिर भी मंज़िल मुझे.. बस वफ़ा ही तो माँगी थी तुझसे तू समझा नहीं पर क़ाबिल मुझे.. जो फूलों का हक़दार नहीं था, ख़ार ही दे जाते, (सच्चे प्यार के बदले, झूठा प्यार ही दे जाते..)  x 2 (बड़ा ख़ुदगर्ज़ है.. इक तरफ़ा प्यार जाँ-लेवा मर्ज़ है.. इक तरफ़ा प्यार )  x 4 बेक़रार लम्हें हैं, कुछ क़रार ही दे जाते, दिल के बंजर बाग़ों को इक बहार ही दे जाते. सच्चे प्यार के बदले, झूठा प्यार ही दे जाते.. © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

दिल भी तुम हो, और जान भी तुम

कितना सुकून है आज इस तन्हाई में!     बस मैं हूँ, तुम हो, औ' फ़िज़ा-ए-ख़ामोश। दिल में खिल रहा गुलशन चाहतों का,     के मिल गई है तुम्हारी बाँहों की आग़ोश। वो दूर एक डली पे इक कली चटकी,     जो हया से इधर झुका ली नज़र तमने। वो आसमाँ से बादलों की घटा बरसी,     जो ज़ुल्फ़ को फेरा, शानों* पर तुमने। ( कांधों) कितनी शीरीं* है वो आवाज़ की खनक,     जो तुम्हारे नम लबों को छूकर आई है! मेरे सीने में तुमने जो ये रक्खा है सर,     आज ख़ुशी से मेरी आँख भर आई है। (* मीठी) मेरा हर लफ्ज़ तुमसे है, तुम्हीं तक है,     हो मेरी हर नज़्म का उन्वान* भी तुम। तुम रूबरू रहो तो चलती रहे ज़िंदगी,     के दिल भी तुम हो, और जान भी तुम। (* शीर्षक) © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - टूटे दिल से पूछो, ख़ाहिशें क्या होती हैं

होंठ पर अटकी सदा की लर्ज़िशें क्या होती हैं छोड़ दें जब साथ अपने, गर्दिशें क्या होती हैं (लर्ज़िश = कंपन) आपने दिल तोड़ डाला खेलकर जज़्बात से, मेरे टूटे दिल से पूछो, ख़ाहिशें क्या होती हैं क्यों हुई घर में लड़ाई ये बड़ों से पूछिये, बच्चों से मत पूछिये ये रंजिशें क्या होती हैं दो दिलों में प्यार होना सर्द बूँदों के तले, इश्क़ वाले जानते हैं, बारिशें क्या होती हैं की हुई कोशिश अगर तुमको बहुत ज़्यादा लगे, चींटियों को देखना तुम, कोशिशें क्या होती हैं © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

मेरे अब्बू मुझको लौट दो

(पिता के गुज़र जाने पर एक लड़की की आपबीती) **** याद में अब्बू की, ये दुनिया सूनी-सूनी लगती है दर्द से बोझल इस दिल में हरदम आग सुलगती है सूने कमरे में चुप-छुपकर मैय्या मेरी रोती है रात-भर उसके नैनों से आँसू की बरखा होती है माँ को मेरी, हे प्रभु, कोई सुबह ख़ुशी की दिलवा दो मेरे अब्बू मुझको लौटा दो, मेरे अब्बू मुझको लौटा दो टूटे दरवाजों से अब भी सर्द हवाएँ आती हैं दिल की सारी उम्मीदें इक पल में ख़ूँ हो जाती हैं रिसती छत से कमरे में बारिश का पानी भरता है फिर भी घर का मालिक रोज़ नए तक़ाज़े करता है हम ग़रीबों को जीने की, आस प्रभु तुम दिखला दो मेरे अब्बू मुझको लौटा दो, मेरे अब्बू मुझको लौटा दो भैया भी मेरा दुख में अब तो अक्सर खोया रहता है नित दीदी की आंखों का काजल रोते-रोते बहता है दादी का तो जैसे सारा जीवन ही है उजड़ गया बेटा खोने के सदमे में, जीवन से जी उखड़ गया उन बूढ़ी साँसों तक फिर प्राण प्रभु तुम पहुँचा दो मेरे अब्बू मुझको लौटा दो, मेरे अब्बू मुझको लौटा दो क्या कहूँ मैं किस क़दर इस घर की रोटी चलती है? खाली बर्तन देखकर सीने से चीख निकलती है जीवन से मैं रू

ये बचपन

ये ठंडे फ़ुटपाथ पर जीते हुए लावारिस बच्चे, ये चीथड़ों से जिस्म ढकने की नाकाम कोशिश! ये हर मुसाफ़िर का हसरत से मुँह ताकना, ये गिरे निवालों को लपकने की नाकाम कोशिश!  ये शामो-सहर दौड़-भाग, एक रोटी के लिए, ये धूप में दिन-भर बोझ ढोता हुआ बचपन! ये मासूम नम आँखों से फ़लक को देखना, ये चीखता हुआ बचपन, ये रोता हुआ बचपन! ये बचपन कि जिसकी देख-रेख को कोई नहीं, ये बचपन जिसका फ़र्दा ही नहीं, माज़ी ही नहीं। ये बचपन जिसमें ताक़त है मौत से लड़ने की, ये बचपन कि उमीद छोड़ने को राज़ी ही नहीं। (फ़र्दा - tomorrow, माज़ी - yesterday) © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

रोटियाँ जल गईं

शहर-भर की लाल बत्तियाँ जल गईं ख़बर उड़ी है कि बस्तियाँ जल गईं 'दहेज-हत्या-केस' नोटों से हुए बंद, क्या पता कितनी बेटियाँ जल गईं? दिल दहकने लगा दुख सहते-सहते, दिल को छुआ तो उँगलियाँ जल गईं कितने जवाँ हौसलों का टूट गया दम, कितनी तमन्नाओं की अर्थियाँ जल गईं कुछ तो साज़िश ज़रूर माँझी की है, संमदर में कैसे कश्तियाँ जल गईं? बहुत आती है माँ की याद, 'ज़ैफ़' आज फिर से ये रोटियाँ जल गईं © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

दो-मुखी नज़्म

सारे रिश्ते देंगे घात प्यारे मान तू मेरी बात जीवन पलटा, जैसे बाज़ी, हारे सबकुछ, यूँ थी मात हम थे लिखते खरी-खरी, हमारे कटे, क्यूँकर हात*? (* हाथ ) नैन तरसें, सुबह-ओ-शाम, धारे बरसें, रात की रात कभी ये थे कितने गहरे, हमारे तुमसे ताल्लुक़ात फेरे नसीब, वक़्त जिसका, सँवारे कौन उसके हालात?  मानता नहीं मज़हब, 'ज़ैफ़' प्यारे! पूछ न उसकी ज़ात (*अब पूरी नज़्म को दोबारा पढ़ें पर इस बार right से left की तरफ़*) © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'