ग़ज़ल - कुछ तो माँ की दुआ का असर था



टल गया जोकि मुश्किल सफ़र था
कुछ तो माँ की दुआ का असर था

मैं किसी से डरा हूँ भला कब?
जो कभी ना झुका, मेरा सर था

कोयलें रो पड़ी इक शजर को,
ये जली शै कभी एक घर था

आग सुलगा गया हर तरफ़ वो,
देखने में तो केवल शरर था

'आदमी अच्छा है', कहते हैं सब,
नेकियों का ही सारा समर था

लाखों थे हुस्न वाले जहाँ में,
प्यार तुम्हीं से था मुझको, गर था

तुम सितम कर गये, ये अदा थी,
हम सहन कर गये, ये हुनर था

आज बचपन बहुत याद आया,
इस जवानी से तो बेहतर था

कबका मर जाते, गर ज़ोर चलता,
क्या करें 'ज़ैफ़', अपनों का डर था

© यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

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