दिल भी तुम हो, और जान भी तुम

कितना सुकून है आज इस तन्हाई में!
    बस मैं हूँ, तुम हो, औ' फ़िज़ा-ए-ख़ामोश।
दिल में खिल रहा गुलशन चाहतों का,
    के मिल गई है तुम्हारी बाँहों की आग़ोश।

वो दूर एक डली पे इक कली चटकी,
    जो हया से इधर झुका ली नज़र तमने।
वो आसमाँ से बादलों की घटा बरसी,
    जो ज़ुल्फ़ को फेरा, शानों* पर तुमने।
( कांधों)

कितनी शीरीं* है वो आवाज़ की खनक,
    जो तुम्हारे नम लबों को छूकर आई है!
मेरे सीने में तुमने जो ये रक्खा है सर,
    आज ख़ुशी से मेरी आँख भर आई है।
(* मीठी)

मेरा हर लफ्ज़ तुमसे है, तुम्हीं तक है,
    हो मेरी हर नज़्म का उन्वान* भी तुम।
तुम रूबरू रहो तो चलती रहे ज़िंदगी,
    के दिल भी तुम हो, और जान भी तुम।
(* शीर्षक)

© यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

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