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ग़ज़ल - कुछ तो माँ की दुआ का असर था

टल गया जोकि मुश्किल सफ़र था कुछ तो माँ की दुआ का असर था मैं किसी से डरा हूँ भला कब? जो कभी ना झुका, मेरा सर था कोयलें रो पड़ी इक शजर को, ये जली शै कभी एक घर था आग सुलगा गया हर तरफ़ वो, देखने में तो केवल शरर था 'आदमी अच्छा है', कहते हैं सब, नेकियों का ही सारा समर था लाखों थे हुस्न वाले जहाँ में, प्यार तुम्हीं से था मुझको, गर था तुम सितम कर गये, ये अदा थी, हम सहन कर गये, ये हुनर था आज बचपन बहुत याद आया, इस जवानी से तो बेहतर था कबका मर जाते, गर ज़ोर चलता, क्या करें 'ज़ैफ़', अपनों का डर था © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - शीशे का दिल है

शीशे का दिल है, सो पत्थर नहीं देखे जाते आज कल आपके तेवर नहीं देखे जाते कुछ 'लगन' नाम की भी चीज़ तो होती होगी? ऊँचे सपने कभी सोकर नहीं देखे जाते कोई अबला लुटी तो सबने फिरा लीं नज़रें, अब ज़माने में दिलावर नहीं देखे जाते (दिलावर = brave) रोक दो जंग, लहू बह रहा है हर जानिब अब अज़ीज़ों के कटे सर नहीं देखे जाते एक सीरत ही बहुत, हुस्न के चमकाने को, लड़की अच्छी हो तो ज़ेवर नहीं देखे जाते (सीरत = स्वभाव, character) जो जाँ भी 'ज़ैफ़' हथेली पे लिए फिरते हैं, उनकी आँखों में कभी डर नहीं देखे जाते © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - सुनो, ज़ेबा!

सुनो, ज़ेबा! दिल दुख रहा है आज बहुत.. नहीं नहीं कोई खास बात नहीं, तुम्हें परेशान करने का इरादा भी नहीं.. भूली-बिसरी यादें दुहराऊं, क्या फ़ायदा? यादें तो कसक बनकर कलेजे में ही फँस गईं हैं जैसे.. तुमसे वो पहली मुलाक़ात थी और आज का ये दिन है, तुम्हारे लिए मेरी चाहत ज़रा भी कम नहीं हुई.. हाँ, जानता हूँ तुम किसी और की हो और ये फ़ालतू की बक़वास अब कोई मायने नहीं रखती पर क्या करूँ, ज़ेबा! दिल दुख रहा है आज बहुत.. लंबा अरसा हो गया है बात किये रस्ते कट चुके हैं दोंनो के और ऐसा भी नहीं कि फिर किसी मोड़ पर आ मिलें इत्तेफ़ाक़न.. तुम काफ़ी पीछे छूट गयी हो मैं भी बहुत दूर चला आया हूँ फिर भी.. नामुराद उम्मीद क़ायम है इसी बात का मुझे ग़म है- मुहब्बत कम भी नहीं होती उम्मीद ख़तम भी नहीं होती सुनो, ज़ेबा! दिल दुख रहा है आज बहुत.. © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

नज़्म - वो शख़्स मुझको मिल गया

दो दिलों ने एक होने का किया है फ़ैसला, अब हमारे दरमियाँ कोई भरम होगा नहीं। मैं तुझी पे वार दूँ जो कुछ भी मेरे पास है, इक दफ़ा बस बोल दे, ये प्यार कम होगा नहीं। जो उजाला चाहिए था ज़िंदगी के वास्ते, वो तिरी सूरत की मीठी धूप में मुझको मिला। मैं जिसे भी ढूँढता था हर चमन में, बाग़ में, वो महकता फूल तेरे रूप में मुझको मिला। आज सबके सामने, करता हूँ इज़हारे-वफ़ा, हाँ तिरी चाहत में मेरी जाँ गयी औ' दिल गया, ज़िंदगी से सच कहूँ तो अब गिला मुझको नहीं, चाहता था मैं जिसे वो शख़्स मुझको मिल गया। © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

ग़ज़ल - काम छीना मुफ़्लिसी ने

काम छीना मुफ़्लिसी ने और फिर ये नाम छीना हम ग़रीबों के सरों से आज सारा बाम* छीना  (बाम = छत) कुछ बहस सी हो गयी थी आज मेरी साक़िया से मन में उसके क्या समाई? हाथ ही से जाम छीना मंथरा के ही कपट ने, मारी ममता कैकई की एक माँ की ज़िद ने आख़िर दूसरी से 'राम' छीना यूँ अलग होने से माना प्यार कम होता नहीं, पर क्या वजह थी ऐ ख़ुदा जो राधिका से श्याम छीना? © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

तरही ग़ज़ल

दर्द ही से फ़क़त बनी हो क्या? ज़िंदगी! इतनी ही बुरी हो क्या? तुमसे इतना लगाव है मुझको! तुम मिरी रूह में बसी हो क्या? हाले-दिल तो छुपा चुका था मैं, मेरी आँखों को पढ़ रही हो क्या? चुप-सी हो, आई हो यहाँ जबसे, मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या?  गाँव कबके उजड़ गया, साहब! शहर से लौटे ही अभी हो क्या? हो गई है, तो मान ले ग़लती! तेरी हर बात अब सही हो क्या? अश्क काग़ज़ भिगो रहे हैं क्यूँ? 'ज़ैफ़' की नज़्म पढ़ रही हो क्या? © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'

तुम्हारे नाम पे

बिताना चाहता हूँ तुम्हारे साथ कुछ पल फ़ुर्सत भरे तुम्हारे नाम पे लिखना चाहता हूँ एक ताज़ा ग़ज़ल उभारना चाहता हूँ तुमको, तुम्हारी ही स्मृतियों से जिनमें तुम अक्सर खो जाया करती हो बात करते-करते| तुम्हारे एक स्पर्श से पिघल जाना चाहता है दिल तुम्हारी साँसों से महक जाना चाहती हैं फ़िज़ाएँ तुम्हारी समंदर आँखों में डूबकर देखना चाहता हूँ ज़िंदगी का सार, तुम्हारी मखमली बाँहों में सिमटना चाहता हूँ थोड़ी देर समेट लेना चाहता हूँ तुम्हारा सारा दुख, चुरा लेना चाहता हूँ तुम्हारी पलकों के आंसू जिन्हें बहाया करती हो तुम अपने सूनेपन में, अक्सर| मैं भर देना चाहता हूँ तमाम ख़ुशियाँ तुम्हारे दामन में और बता देना चाहता हूँ तुम्हें कि मेरे लिए, तुमसे ख़ूबसूरत और कोई ग़ज़ल नहीं © यमित पुनेठा 'ज़ैफ़'